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मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ 

मिनर्वा मिल्स
महिला अधिकार LATEST LAWLeave a Comment on मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ 

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ 

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ 

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार वर्ष 1980 :-   संविधान के महत्वपूर्ण निर्णयो की कड़ी में आज प्रस्तुत है मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार 1980 का महत्वपूर्ण निर्णय—–जैसा कि आपने इस कड़ी के भाग 1 से 4 में निर्णय देखे हैं उन्हें पढ़कर वह समझकर आपने यह अंदाजा जरूर लगाया होगा कि यह दौर सरकार और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के बीच अपने अपने अधिकारों के वर्चस्व का दौर था।वर्ष  1951 से लेकर चली आ रही ये जंग आखिरकार वर्ष 1980 में खत्म हुई जब मिनर्वा मिल्स के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय दिया वैसे तो वर्ष 1951 से अपने अधिकारों के वर्चस्व की लड़ाई प्रारंभ हो गई थी। लेकिन केसवानंद भारती वर्ष 1973 के निर्णय के बाद यह युद्ध भीषण हो गया परिणामस्वरूप 42 वें संविधान संशोधन सरकार द्वारा किया गया आज के प्रकरण में भी 42 वे संशोधन से जुड़े तथ्यों पर आधारित निर्णय दिया गया है-https://indianlawonline.com/

कर्नाटक राज्य  के  बेंगलुरु शहर में एक प्राइवेट (निजी )कपड़ा मिल थी किसका नाम मिनर्वा मिल्स था। यह एक बड़ी मिल थी लेकिन वर्ष 1971 में सरकार ने इस मिल का राष्ट्रीयकरण कर दिया एवं इस मिल का अधिग्रहण कर सरकार ने इसे अपने कब्जे में ले लिया ।इस अधिकरण ओर इसके राष्ट्रीयकरण से व्यथित होकर मिनर्वा मिल माननीय सर्वोच्च न्यायालय गई और उस जमाने के देश के सबसे बड़े नामी वकील नानी पालकी वाला के माध्यम से विभिन्न तथ्य माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखें नानी पालकी वाला ने बताया कि संसद के पास अंतर्निहित  शक्तियां नहीं है -संसद सविधान क्रिएटर है – संविधान सर्वोच्च है- संसद संविधान के ऊपर नहीं है- उन्होंने 42 में संशोधन में अनुच्छेद 368 में जोड़े गए भाग 4 व 5 को हटाए जाने की वकालत की ।https://indianlawonline.com/

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ की बेंच ने याचिकाकर्ता व सरकार दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद प्रमुख रूप से दो महत्वपूर्ण बिंदुओं पर अपना निर्णय सुनाया जिसे वर्ष 1951 से चल रहे माननीय सर्वोच्च न्यायालय व सरकार के बीच में अपने अधिकारों को लेकर चल रहे विवाद खत्म हुए इस निर्णय में प्रतिपादित सिद्धांत आज भी पालन किए जा रहे है 42 वे  संविधान संशोधन मैं अनुच्छेद 368 मैं भाग 4 व 5 जोड़े गए थे जिसमें यह प्रदान किए गए थे कि संसद द्वारा(1) संसद द्वारा किए गए किसी भी संविधान संशोधन को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती अर्थात उस उसका न्यायिक पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता है  दूसरा        प्रावधान यह किया गया था कि संसद द्वारा संविधान में संशोधन की शक्ति का किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं होगा. माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 42 वें संविधान संशोधन में जोड़े गए अनुच्छेद 368 के भाग 4 व 5 को रद्द कर दिया गया। शून्य घोषित कर दिया गया न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि संसद ऐसा कोई संशोधन पारित नहीं कर सकती जो आम आदमी के अधिकारों को खत्म करता हूं एवं संविधान के मूलभूत ढांचे को नुकसान पहुंचाता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय  का यह मत था कि संविधान सर्वोच्च है और संविधान के सर्वोच्चता पर आच आए ऐसा कोई संविधान संशोधन संसद द्वारा नहीं किया जा सकता इस निर्णय में न्यायालय द्वारा यह भी बताया गया संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार व नीति निर्देशक तत्व दोनों का अपना-अपना महत्व है साथ ही न्यायिक पुनरावलोकन अर्थात न्यायिक समीक्षा को संविधान के मूलभूत ढांचे का हिस्सा बताया इस प्रकार इस निर्णय का प्रमुख सार हम  2 शब्दों में समझ सकते हैं 1. न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार न्यायालय को है संसद द्वारा पारित किसी भी संविधान संशोधन को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है—– दूसरा 2. संसद संविधान संशोधन कर सकती है परंतु संविधान के मूलभूत ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती संसद क्रिएटर है परंतु संविधान सबसे सर्वोच्च है  –  https://indianlawonline.com/        

इस निर्णय में माननीय सुप्रीम कोर्ट नें निम्न महत्वपूर्ण तथ्यों को भी बताया -:

अदालत निराशा में अपने हाथ नहीं जोड़ सकती है और “न्यायिक हाथ बंद” घोषित नहीं कर सकती है। जब तक यह प्रश्न है कि संविधान के अधीन किसी प्राधिकारी ने अपनी शक्ति की सीमा के भीतर कार्य किया है या उससे अधिक हुआ है, तो यह निश्चित रूप से न्यायालय द्वारा तय किया जा सकता है। वास्तव में ऐसा करना उसका संवैधानिक दायित्व होगा। मैं फिर से दोहराने से पहले कह चुका हूं कि संविधान देश का सर्वोपरि कानून है, और इससे ऊपर या बाहर सरकार का कोई विभाग या शाखा नहीं है। सरकार का हर अंग, चाहे वह कार्यपालिका हो या विधायिका या न्यायपालिका, संविधान से अपना अधिकार प्राप्त करता है और उसे अपने अधिकार की सीमा के भीतर कार्य करना होता है और उसने ऐसा किया है या नहीं यह न्यायालय को तय करना है। न्यायालय एच संविधान के अंतिम व्याख्याकार और जब संविधान के तहत शक्ति का स्पष्ट रूप से अनधिकृत प्रयोग होता है, तो न्यायालय का कर्तव्य है कि वह हस्तक्षेप करे। यह न भूलें कि सरकार की अन्य शाखाओं की तरह ही यह न्यायालय भी संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण और संवर्धन के लिए प्रतिबद्ध है। ‘न्यायालय का कार्य संवैधानिक योजना में उन मूल्यों की पहचान करना और अदालत में पहुंचने वाले मामलों में उन्हें जीवन में लागू करना है। “चतुरता और विवेकपूर्ण संयम से किसी भी शक्ति को संयमित करना चाहिए लेकिन साहस और जिम्मेदारी की स्वीकृति का भी अपना स्थान है।” न्यायालय इस उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकता है और उसे नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि इसने संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली है और इस देश के लोगों के प्रति जवाबदेह भी है। इसलिए नहीं होगा, अदालत के लिए यह जांच करने से इनकार करना सही होगा कि क्या किसी दिए गए मामले में राष्ट्रपति द्वारा सीएल के तहत आपातकाल की उद्घोषणा जारी करने में कोई संवैधानिक उल्लंघन शामिल है। केशवानंद भारती और श्रीमती के मामले में फैसले के बाद। इंदिरा गांधी के मामले में, इसमें कोई संदेह नहीं था कि संशोधनात्मक था। और खंड (5) उस संदेह को दूर नहीं कर सका जो अस्तित्व में नहीं था। एक खंड (एस) वास्तव में संसद की संशोधित शक्ति पर सीमा को हटाने और इसे एक सीमित शक्ति से असीमित में परिवर्तित करने की मांग करता था। यह स्पष्ट रूप से और निश्चित रूप से संसद की ओर से एक निरर्थक कवायद थी। मैं यह देखने में असफल हूं कि जिस संसद के पास संशोधन की केवल सीमित शक्ति है और जो संविधान की मूल संरचना को नहीं बदल सकती है, वह अपनी संशोधन की शक्ति का विस्तार कैसे कर सकती है ताकि खुद को संविधान को निरस्त करने या निरस्त करने या उसके नुकसान या नष्ट करने की शक्ति प्रदान कर सके। बुनियादी संरचना। यह स्पष्ट रूप से संसद के पास सीमित संशोधन शक्ति से अधिक होगा। संविधान ने संसद को केवल एक सीमित संशोधन शक्ति प्रदान की है ताकि वह संविधान की मूल संरचना को नुकसान या नष्ट न कर सके और संसद उस सीमित संशोधन शक्ति का प्रयोग करके उस शक्ति को पूर्ण और असीमित शक्ति में परिवर्तित नहीं कर सकती है। यदि संसद को सीमित संशोधन शक्ति को संशोधित करने की पूर्ण शक्ति में विस्तारित करने की अनुमति थी, तो संशोधन की मूल शक्ति पर एक सीमा लगाना अर्थहीन था। यह समझना मुश्किल है कि संशोधन की सीमित शक्ति वाली संसद किस प्रकार उस शक्ति का प्रयोग करके उस सीमा से छुटकारा पा सकती है और उसे एक निरंकुश शक्ति में परिवर्तित कर सकती है। का खंड (एस)। यह समझना मुश्किल है कि संशोधन की सीमित शक्ति वाली संसद किस प्रकार उस शक्ति का प्रयोग करके उस सीमा से छुटकारा पा सकती है और उसे एक निरंकुश शक्ति में परिवर्तित कर सकती है.https://indianlawonline.com/

<strong>मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ </strong> <strong>मिनर्वा मिल्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ </strong>

 इस निर्णय के पीडीएफ फाइल के  के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें संविधान के प्रमुख निर्णयों की के भाग 1से 4 के महत्वपूर्ण निर्णयो को दिए गए इस वेबसाइट पर अवलोकन करें.

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