संविधान के महत्वपूर्ण निर्णयों की कड़ी में आज प्रस्तुत है संविधान का सबसे बड़ा मामला केशवानंद भारती केस 1973 केस जो उस समय से लेकर आज तक का सबसे बड़ा निर्णय माना जाता है माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित कुल 13 न्यायाधीश शामिलएसएम (सीजे) शेलट, जेएम, हेगड़े, केएस एंड ग्रोवर, एएन, रे, एएन एंड रेड्डी, पीजे एंड पालेकर, डीजी, खन्ना, हंस राज मैथ्यू, केके एंड बेग, एमएच, द्विवेदी, एसएन मुखर्जी, बीके चंद्रचूड़, वाई.वी थे इस केस की सुनवाई 68 दिन तक चली 100 से अधिक निर्णयो अर्थात फैसलों का हवाला दिया गया, विभिन्न देशों के 70 से अधिक संविधानो पर मंथन किया गया तब कहीं जाकर 703 पेज का यह ऐतिहासिक निर्णय दिनांक 24. 04 .1973 को सुनाया गया यह निर्णय संविधान के निर्णय का मील का पत्थर है लगभग 50 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं आज भी यह निर्णय कानून विदो, कानून में रुचि रखने वालों, न्यायाधीश, अधिवक्ता,कानून के विद्यार्थी सभी के यह एक बहुत बड़ा निर्णय है इस निर्णय की कहानी को जानने से पहले हमें पूर्व के तीन निर्णयों को संक्षिप्त में समझना होगा(1)श्री शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ और राज्य . (indianlawonline.com)—1951 शंकरी प्रसाद(2)—– 1965 सज्जन सिंहसज्जन सिंह बनाम राजस्थान ऐतिहासिक फैसला (indianlawonline.com) इन दोनों निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद के निर्णय को मान्यता दी थी और संसद द्वारा संविधान संशोधन जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल है को मान्यता प्रदान की थी तीसरा निर्णय 1967— गोलकनाथ केस आईसी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य (indianlawonline.com)का था जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व के उक्त दोनों निर्णयों को पलटते हुए यह व्यवस्था दी थी कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती जिस पर सरकार द्वारा 24 वा संशोधन पारित किया गया जिसमें इस गोरखनाथ के निर्णय को खारिज कर दिया गया 24 वे संशोधन में संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह संविधान में कोई भी संशोधन कर सकती है मौलिक अधिकार में भी संशोधन कर सकती है साथ ही राष्ट्रपति के अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया जिसके बारे में पूर्व में आर्टिकल गोलकनाथ केस में संपूर्ण जानकारी दी गई है आप देख सकते हैआईसी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य (indianlawonline.com) 24 वें संशोधन के बाद 25 वॉ संविधान संशोधन किया गया जिसमें संपत्ति के अधिकारों को और भी सीमित कर दिया गया यह सिलसिला यहीं नहीं रुका सरकार ने 29 वॉ संशोधन किया जिसमें केरल राज्य के भूमि सुधार कानून को संविधान की नवीं अनुसूची में डाल दिया जिससे केरल की भूमि सुधार कानून की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती थी अर्थात इसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती यहां से केशवानंद केस की भूमिका तैयार हुई.
हमारे देश में संविधान बनने के बाद सामाजिक आर्थिक सुधारों व आमजन की आवश्यकताओं के लिए अलग-अलग राज्यों सरकारों ने अपने राज्य के विकास के लिए अपने अलग-अलग कानून बनाएं केरल सरकार ने ऐसा ही एक कानून भूमि सुधार अधिनियम 1963 बनाया इसमें यह प्रावधान था कोई भी व्यक्ति कितनी भूमि रख सकता है अर्थात भूमि रखने की सीमा तय की गई ओर तय भूमि से ज्यादा भूमि का सरकार द्वारा अधिग्रहण किया जाने लगा, केरल के कासरगोड जिले के एक मठ की भूमि को इस अधिनियम के तहत अधिग्रहण कर लिया गया इस मठ की भूमि बहुत अधिक थी इसलिए इस मठ द्वारा संपत्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए एवं अनुच्छेद 26 का उल्लंघन मानते हुए इसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी 24 अप्रैल 1973 को 7/ 6 बहुमत से माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर अपना निर्णय दिया यह निर्णय भी यूं देखा जाए तो सरकार के पक्ष में ही था क्योंकि इस निर्णय में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 24 वे 29 वे सभी संशोधनों को सही मान लिया एवं यह भी कहा कि सरकार नागरिकों के प्रति अपनी सामाजिक व आर्थिक जिम्मेदारी निभाते हुए संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है यहां तक ठीक था परंतु यह निर्णय ऐतिहासिक व देश का सबसे बड़ा निर्णय इसलिए कहा गया कि उपरोक्त बातों के अलावा सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अपने निर्णय में यह कहा की “संसद संविधान के मूलभूत ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती” अर्थात मूलभूत ढांचे का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया संसद मूलभूत ढांचे से छेड़छाड़ नहीं कर सकती यह सिद्धांत आज भी लागू है इस प्रकार संसद के मूलभूत ढांचे का जन्म इस निर्णय से हुआ इस निर्णय के बाद कई सवाल भी उठे कि इन मूलभूत ढांचों में कौन से तथ्य शामिल है? 1973 के इस निर्णय के बाद लगभग कितने ही संविधान संशोधन किए गए है ओर इनमे से लगभग 16 मामलों में मूलभूत सिद्धांत लागू किया गया 7 मामलों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने संशोधन रद्द कर दिए मूलभूत ढांचे के सिद्धांत को लेकर कानून के जानकरों ने माननीय सुप्रीम कोर्ट तक की भी आज आलोचना की है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के मूलभूत ढांचे के सिद्धांत को अपने पक्ष के निर्णय में ही लागू किया है वर्ष 2015 में सरकार द्वारा न्यायिक आयोग का गठन किया तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मूलभूत ढांचे के सिद्धात के अंतर्गत रद्द कर दिया क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर बना था यह आलोचना कितनी सही या गलत है यह हम पाठको पर छोड़ते हैं परंतु ऐसी आलोचना कुछ लोगों द्वारा की गई है.
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केशवानंद भारती केस 1973
इस निर्णय में माननीय सुप्रीम कोर्ट नें निम्न महत्वपूर्ण तथ्यों को भी बताया
हमें लगता है कि मौलिक अधिकारों के रूप में वर्णित अधिकार प्रस्तावना में घोषणा का एक आवश्यक परिणाम है कि भारत के लोगों ने भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने का संकल्प लिया है; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता; स्थिति और अवसर की समानता। इन मौलिक अधिकारों को संविधान में केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं रखा गया है, हालांकि अंततः वे व्यक्तिगत अधिकारों पर विचार करने के लिए लागू होते हैं। उन्हें वहां सार्वजनिक नीति के मामले के रूप में रखा गया है और छूट के सिद्धांत का कानून के उन प्रावधानों पर कोई लागू नहीं हो सकता है जिन्हें संवैधानिक नीति के रूप में लागू किया गया है। संविधान मौलिक अधिकारों को गर्व का स्थान देता है और निर्देशक सिद्धांतों को स्थायित्व देता है। । हमारे संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि संविधान का उद्देश्य भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में गठित करना और “उसके सभी नागरिकों”, न्याय-सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक-स्वतंत्रता और समानता को सुरक्षित करना है। मौलिक अधिकार जो संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त और गारंटीकृत हैं संविधान-निर्माताओं का इरादा राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों से अधिक महत्व देना था। परमेश्वर ने पृथ्वी और जो कुछ उस में है सब मनुष्यों और सब लोगों के उपयोग के लिये नियत किया है। इसलिए, न्याय, दान के साथ, निर्मित वस्तुओं के वितरण को इस प्रकार विनियमित करना चाहिए कि वे वास्तव में सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हों।
इसके अलावा, सभी को अपने और अपने परिवार के लिए पर्याप्त सांसारिक वस्तुओं का हिस्सा रखने का अधिकार है।हमारे संविधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक संप्रभु गणराज्य की स्थापना की परिकल्पना की गई है। लोकतंत्र इस बुनियादी धारणा पर आगे बढ़ता है कि संसद में लोगों के प्रतिनिधि लोगों की इच्छा को प्रतिबिंबित करेंगे और वे लोगों को धोखा देने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे या लोगों द्वारा उन पर किए गए भरोसे और भरोसे का दुरुपयोग नहीं करेंगे।संविधान एक जीवित व्यवस्था है। लेकिन जिस तरह एक जीवित, जैविक प्रणाली में, जैसे कि मानव शरीर, विभिन्न अंगों का विकास और क्षय होता है, फिर भी मूल संरचना या पैटर्न प्रत्येक अंग के उचित कार्य के साथ समान रहता है, उसी तरह एक संवैधानिक प्रणाली में भी बुनियादी संस्थागत पैटर्न भले ही विभिन्न घटक भागों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकते हैं।संशोधन प्रक्रिया का संबंध उस सांविधिक ढांचे से है जिसका यह स्वयं हिस्सा है। यह विस्तार से परिवर्तन को प्रभावित कर सकता है, अंतर्निहित सिद्धांतों की कानूनी अभिव्यक्ति को फिर से ढाल सकता है, सिस्टम को बदलती परिस्थितियों की जरूरतों के अनुकूल बना सकता है.
42वॉ सविंधान संसोधन( मिनी सविंधान) ——– इस निर्णय के राजनीतिक साइड इफेक्ट निम्न है:- जैसा कि गोलकनाथ के निर्णय के बाद जब सरकार को यह निर्णय पसंद नहीं आया तो सरकार ने 24 वॉ संशोधन कर गोरखनाथ के निर्णय को निरस्त कर दिया उसी की तर्ज पर कहते है कि नए मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के पश्चात इस निर्णय को बदलने के लिए 13 जजों की एक बेंच फिर बनाई गई थी लेकिन बाद में उसे किसी कारण से रद्द कर दिया गया इसके पश्चात 1976 में भारत में 42वां संविधान संशोधन किया गया इस संशोधन को लघु संविधान के रूप में भी जाना जाता है सरकार स्वर्ण सिंह कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के लिए यह संशोधन किया गया इसमें कई महत्वपूर्ण संशोधन किए गए जैसे (1)प्रस्तावना को बदला गया 3 नए शब्द समाजवादी, पंथनिरपेक्ष,अखंडता, शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए(2)— अनुच्छेद(51क) में मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के लिए बाध्यकारी है यह जोड़ा गया अर्थात राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी पड़ेगी(3) अनुच्छेद (14 क) नये ट्रिब्यूनल का गठन किया गया संसद का कार्यकाल लोकसभा राज्यसभा प्रधानमंत्री सभी सदस्य का कार्यकाल बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया अनुच्छेद (4क) नीति निर्देशक तत्व को मूल अधिकारों से अधिक वरीयता दी गई इनमें नए 3 शब्द जोड़े गए अनुच्छेद 352 में बदलाव किया गया राज्य सूची से कुछ विषय संवर्ती सूची में डाले गए संसद में लोकसभा और राज्यसभा की में कार्यवाही में कोरम की अनिवार्यता को खत्म कर दिया भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा के गठन के बारे में चर्चा की गई . इस प्रकार इस संसोधन में अनेक संशोधन किए गए जिनका विस्तृत विवेचन हम अलग से करेंगे यहां हम उस संशोधन के बारे में बता रहे है जो केशवानंद भारती से जुड़ा है इस 42 वें संशोधन में सबसे महत्वपूर्ण संशोधन यह था संसद द्वारा किए गए किसी भी संविधान संशोधन की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती ओर इसका न्यायिक पुनरावलोकन नहीं किया जा सकता इसे आगे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कैसे निर्धारित किया यह हम मिनर्वा मिल एवं वामन राव के निर्णय के विवेचन के समय बताएंगे
केशवानंद भारती केस 1973
निर्णय के बाद के रोचक तथ्य— जिस दिन यह निर्णय सुनाया गया इसे सुनाने वाले माननीय सुप्रीम कोर्ट के जज सिकरीवाल दूसरे दिन सेवानिवृत्त हो गए इस निर्णय से पूर्व भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय में यह परंपरा थी कि सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया जाता था लेकिन ऐसा कहा जाता है कि यह निर्णय तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को पसंद नहीं आया इस निर्णय में 7/6 के बहुमत से फैसला हुआ था जो 7 लोग फैसले के पक्ष में थे उनमें चार ऐसे जज थे जो सबसे वरिष्ठ थे लेकिन श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन 6 जजों को इस निर्णय के विरोध में थे में से एक जज श्रीमान ए. एन.रे को भारत का नया मुख्य न्यायाधीश घोषित कर दिया जबकि ए.एन. रे इन चारों जजों के से जूनियर थे जिन्होंने निर्णय के पक्ष में फैसला सुनाया था उस पर कुछ वरिष्ठ जजों ने अपना त्यागपत्र दे दिया और न्यायधीश ए.एन. रे वर्ष 1973 से 1977 तक 4 वर्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे और सबसे आश्चर्यजनक व रोचक तथ्य यह है कि ए.एन. रे भारत के 14वें मुख्य न्यायाधीश थे इसके बाद 15वें,16वें, 17वें,ओर 18 वें भारत मुख्य न्यायाधीश वही बने रहे जो इस निर्णय के विरुद्ध थे या सरकार के पक्ष के थे केशवानंद भारती केस के पक्ष में निर्णय देने वाले कोई जज माननीय सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नहीं बन पाया? यह भी कहा जाता है कि देश के आपातकाल के 19 माह के दौरान जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ए. एन.रे थे जब उन्होंने जनता की बजाय सरकार का साथ दिया थाओर सरकार के पक्ष में फैसले दिए इस प्रकार इस निर्णय से बहुत सी चीजें जुड़ी हुई है बहुत से रोचक तथ्य जुड़े हैं बहुत से अनसुलझी पहेली भी हैये कितने सच है कितने गलत ये तो आप ही तय करे हमें जो जानकारी मिली वो हमनें यहां बताई है साथ ही 1980 में मिनर्वा मिल व 1981 में वामन राव का मामला भी इस निर्णय से जुड़ा है जिसका विश्लेषण हम इस इस कड़ी में आगे के अगले भाग में करेंगे कुल मिलाकर केसवानंद भारती केस भारत के संविधान के इतिहास का सबसे बड़ा, सबसे अधिक जानकारी वाला, सबसे अधिक मजबूत,और संविधान को समझने वालों के लिए एक सबसे बड़ा ऐतिहासिक निर्णय है