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जमानत –BAIL

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जमानत –BAIL

जमानत–BAIL जब किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध के आरोप में पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाता है तो उस व्यक्ति द्वारा जमानत का प्रार्थना पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है जिस पर सुनवाई के पश्चात न्यायालय उसे जमानत देती है अथवा जमानत प्रार्थना पत्र खारिज करती है. जमानत का मतलब है कि व्यक्ति  को न्यायालयों के शर्तों के अधीन पुलिस द्वारा गिरफ्तार नहीं किया जा सकता अथवा गिरफ्तार है तो जमानत के आदेश अनुसार उसे छोड़ दिया जावेगा.जमानत जमानत आरोपी के स्वयं के बंद पत्र पर भी दी जा सकती है अथवा अन्य व्यक्तियों की जितनी भी न्यायालय उचित समझे से जमानत बंधपत्र  या प्रतिभूति के आधार पर भी दी जा सकती है अपराध दो प्रकार के होते हैं  जमानतीय  अपराध -BAILABLE ,अजमानतीय  अपराध -NON-BAILABLE  अजमानतीय अपराधों में पुलिस आरोपी को गिरफ्तार कर उसे 24 घंटे के भीतर नजदीकी मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करती है जहां गिरफ्तार व्यक्ति की ओर से धारा 437 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपने जमानत का आवेदन प्रस्तुत किया जाता है जिस पर न्यायालय सुनवाई के पश्चात जमानत लेती है अथवा जमानत प्रार्थना पत्र खारिज करती है . धारा 436 सीआरपीसी के अंतर्गत अजमानतीय मामलों से भिंन जमानतीय  मामलों में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी पर पुलिस द्वारा जमानत ली जाती है उसे न्यायालय में प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं होता है अजमानतीय अपराधो में जमानत खारिज होने पर धारा 439 दंड प्रक्रिया संहिता में संबंधित सेशन कोर्ट या उच्च न्यायालय में जमानत का आवेदनप्रस्तुत कियाजासकताहै.https://indianlawonline.com/first-information-report-fir/                                         अग्रिम जमानत ANTICIPATORY BAIL—— जब किसी व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो कि उसे किसी अजमानतीय  अपराध में गिरफ्तार किया जा सकता है तो वह  धारा 438 दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत ऐसी गिरफ्तारी से बचने के लिए ,उस पर रोक लगाने के लिए अग्रिम जमानत का प्रार्थना पत्र सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है . अर्नेश बनाम बिहार राज्य 2014 के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 (1) न्यायालय द्वारा यह दिशा निर्देश दिए गए हैं कि 7 साल तक की सजा वाले मामलों में पुलिस आरोपी को सीधे गिरफ्तार नहीं कर सकती उसे पहले 41 (1)का नोटिस देना आवश्यक है और आवश्यकता पड़ने पर ऐसे मामलों में मुलजिम की गिरफ्तारी की जा सकेगी ऐसी गिरफ्तारी किए जाने पर पुलिस को उसके पर्याप्त कारण बताने होंगे

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अर्नेश बनाम बिहार राज्य 2014 के मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 (1) न्यायालय द्वारा यह दिशा निर्देश दिए गए हैं कि 7 साल तक की सजा वाले मामलों में पुलिस आरोपी को सीधे गिरफ्तार नहीं कर सकती उसे पहले 41 (1)का नोटिस देना आवश्यक है और आवश्यकता पड़ने पर ऐसे मामलों में मुलजिम की गिरफ्तारी की जा सकेगी ऐसी गिरफ्तारी किए जाने पर पुलिस को उसके पर्याप्त कारण बताने होंगे.इस फैसले में न्यायालय द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 को भी बहुत ही विस्तृत रूप से समझाया गया है कि पुलिस कब किसी को गिरफ्तार कर सकती है और गिरफ्तार करने पर क्या प्रक्रिया पुलिस को पालन करने होगी इसीलिए यहाँ हम आपको  इस  निर्णय के कुछ अंश बता रहे हैं जिसमें दंड प्रक्रिया संहिता की धारा- 41 और न्यायालय द्वारा दिए गए दिशा निर्देश शामिल है इस निर्णय को विस्तृत रूप से पढ़ने के लिए और समझने के लिए आप नीचे बताए गए लिंक पर क्लिक कर उसे पूरा डाउनलोड कर सकते हैं और पढ़ कर इस निर्णय को समझ सकते हैं 

(निर्णयकेकुछअंश) धारा 41 दंड प्रक्रिया संहिता पुलिस वारंट के बिना कब गिरफ्तार कर सकती है.-(1) कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारंट के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है –

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(1)जिसके खिलाफ एक उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय जानकारी प्राप्त हुई है, या एक उचित संदेह मौजूद है कि उसने एक संज्ञेय अपराध किया है, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम हो सकती है या जो सात तक हो सकती है। वर्ष चाहे जुर्माने के साथ या उसके बिना, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात्: –

(ii) पुलिस अधिकारी संतुष्ट है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है – ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिए; या अपराध की उचित जांच के लिए; या ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरीके से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए; या ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वादा करने से रोकने के लिए ताकि उसे ऐसे तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के सामने प्रकट करने से रोका जा सके; या जब तक कि ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है, जब भी आवश्यक हो, न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, और पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय लिखित रूप में उसके कारणों को रिकॉर्ड करेगा:

बशर्ते कि एक पुलिस अधिकारी, उन सभी मामलों में जहां इस उप-धारा के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में रिकॉर्ड करेगा।

पूर्वोक्त प्रावधान के एक सादे पढ़ने से, यह स्पष्ट है कि सात साल से कम या जुर्माने के साथ या उसके बिना सात साल तक के कारावास से दंडनीय अपराध के आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। पुलिस अधिकारी केवल इस बात से संतुष्ट होने पर कि ऐसे व्यक्ति ने पूर्वोक्त दंडनीय अपराध किया है। गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारी को ऐसे मामलों में और संतुष्ट होना होगा कि ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिए ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है; या मामले की उचित जांच के लिए; या अभियुक्त को अपराध के सबूत गायब होने से रोकने के लिए; या ऐसे सबूत के साथ किसी भी तरीके से छेड़छाड़ करना; या ऐसे व्यक्ति को कोई प्रलोभन देने से रोकने के लिए, किसी गवाह को धमकी देना या वादा करना ताकि उसे अदालत या पुलिस अधिकारी के सामने ऐसे तथ्य प्रकट करने से रोका जा सके; या जब तक ऐसे अभियुक्त व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है.

जब भी आवश्यक हो, अदालत में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। ये निष्कर्ष हैं, जिन पर तथ्यों के आधार पर पहुंचा जा सकता है। कानून पुलिस अधिकारी को उन तथ्यों को बताने और उन कारणों को लिखित रूप में दर्ज करने के लिए बाध्य करता है, जिसके कारण वह इस तरह की गिरफ्तारी करते समय पूर्वोक्त प्रावधानों में से किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा। कानून आगे पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में रिकॉर्ड करने की आवश्यकता है। संक्षेप में, गिरफ्तारी से पहले पुलिस कार्यालय को खुद से एक सवाल करना चाहिए, गिरफ्तारी क्यों क्या यह वास्तव में आवश्यक है? यह किस उद्देश्य से काम करेगा? इससे क्या उद्देश्य प्राप्त होगा? इन सवालों के समाधान के बाद ही और उपरोक्त वर्णित एक या अन्य शर्तों को पूरा करने के बाद ही गिरफ्तारी की शक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए। ठीक है, पहले गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारियों के पास सूचना और सामग्री के आधार पर यह विश्वास करने का कारण होना चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है। 

इसके अलावा, पुलिस अधिकारी को इस बात से और संतुष्ट होना होगा कि उप-धाराओं द्वारा परिकल्पित एक या एक से अधिक उद्देश्यों के लिए गिरफ्तारी आवश्यक है गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारियों के पास सूचना और सामग्री के आधार पर यह विश्वास करने का कारण होना चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है। इसके अलावा, पुलिस अधिकारी को इस बात से और संतुष्ट होना होगा कि उप-धाराओं द्वारा परिकल्पित एक या एक से अधिक उद्देश्यों के लिए गिरफ्तारी आवश्यक है गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारियों के पास सूचना और सामग्री के आधार पर यह विश्वास करने का कारण होना चाहिए कि अभियुक्त ने अपराध किया है। इसके अलावा, पुलिस अधिकारी को इस बात से और संतुष्ट होना होगा कि उप-धाराओं द्वारा परिकल्पित एक या एक से अधिक उद्देश्यों के लिए गिरफ्तारी आवश्यक है

इस फैसले में हमारा प्रयास यह सुनिश्चित करना है कि पुलिस अधिकारी अनावश्यक रूप से अभियुक्तों को गिरफ्तार न करें और मजिस्ट्रेट आकस्मिक और यांत्रिक रूप से हिरासत को अधिकृत न करें। यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमने ऊपर क्या देखा है, हम निम्नलिखित निर्देश देते हैं:

पुलिस अधिकारी अभियुक्त को आगे हिरासत में लेने के लिए मजिस्ट्रेट के सामने पेश करते समय उचित रूप से दर्ज की गई जांच सूची को अग्रेषित करेगा और गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कारण और सामग्री प्रस्तुत करेगा;

मजिस्ट्रेट अभियुक्त की हिरासत को अधिकृत करते समय पुलिस अधिकारी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का पूर्वोक्त शर्तों के अनुसार अवलोकन करेगा और उसकी संतुष्टि दर्ज करने के बाद ही मजिस्ट्रेट हिरासत को अधिकृत करेगा;

किसी अभियुक्त को गिरफ्तार न करने का निर्णय, मामले के संस्थित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट को अग्रेषित किया जाएगा, जिसकी एक प्रति मजिस्ट्रेट को दी जाएगी, जिसे जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा दर्ज किए जाने वाले कारणों से बढ़ाया जा सकता है। लिखना;

उपस्थिति की सूचना अभियुक्त को मामले की संस्थित होने की तारीख से दो सप्ताह के भीतर तामील की जानी चाहिए, जिसे लिखित रूप में दर्ज किए जाने वाले कारणों के लिए जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा बढ़ाया जा सकता है;

पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करने में विफलता संबंधित पुलिस अधिकारियों को विभागीय कार्रवाई के लिए उत्तरदायी बनाने के अलावा क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार वाले उच्च न्यायालय के समक्ष अदालत की अवमानना के लिए दंडित किए जाने के लिए भी उत्तरदायी होगी।

संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पूर्वोक्त कारणों को रिकॉर्ड किए बिना निरोध को अधिकृत करना, उपयुक्त उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होगा।

हम यह जोड़ने में जल्दबाजी करते हैं कि पूर्वोक्त निर्देश न केवल आईपीसी की धारा – 498-A या दहेज निषेध अधिनियम की  धारा -4 के तहत आने वाले मामलों पर लागू होंगे , बल्कि ऐसे मामलों में भी लागू होंगे जहां अपराध एक अवधि के लिए कारावास के साथ दंडनीय है। जो सात वर्ष से कम हो सकता है या जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है; चाहे जुर्माने के साथ या बिना।

सुशीला अग्रवाल बनाम राज्य (एनसीटी ऑफ दिल्ली) 29 जनवरी, 2020 को अभियुक्त के आचरण और व्यवहार के आधार पर दी गई अग्रिम जमानत चार्जशीट दाखिल होने के बाद परीक्षण के अंत तक जारी रह सकती है।

अपीलकर्ता को तुरंत गिरफ्तार करने और द्वितीय अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश से स्पष्टीकरण मांगने का उच्च न्यायालय का आदेश पूरी तरह से असंगत था और इसकी आवश्यकता नहीं थी। उच्च न्यायालय के इस तरह के आदेश जिला न्यायपालिका पर एक द्रुतशीतन प्रभाव पैदा करते हैं। जिला न्यायपालिका के सदस्यों को उचित मामलों में जमानत देने के लिए कानूनी रूप से उन्हें सौंपे गए अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने के लिए भय की भावना में नहीं रखा जा सकता है। ट्रायल जज के आदेश से यह संकेत नहीं मिलता है कि उन्होंने कानून के गलत सिद्धांतों को लागू किया था। इसके विपरीत, अपराध की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अन्य अभियुक्तों को जमानत दे दी गई थी और चार्जशीट प्रस्तुत कर दी गई थी, ज़मानत देने के विवेक का प्रयोग उचित था।

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जमानत चार प्रकार की होती है

रेगुलर जमानत—  डिफॉल्ट जमानतअग्रिम जमानतअंतरिम जमानत

रेगुलर जमानत—जब अनुसंधान के दौरान अथवा विचारण के दौरान दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 और धारा 439 के अंतर्गत न्यायालय से जमानत मिलती है उसे रेगुलर बैल कहा जाता है साथ ही ज़ब दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 के तहत जब जमानती अपराध में पुलिस जमानत लेती है उसे भी रेगुलर बैल कहा जाता है

 डिफॉल्ट बेल या डिफॉल्ट जमानत– पुलिस को अनुसंधान के बाद में न्यायालय में आरोप पत्र प्रस्तुत करना होता है इसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के अंतर्गत प्रावधान दिए गए हैं कि अगर कोई अपराध जिसकी सजा 10 साल तक की है उनमें आरोप पत्र प्रस्तुत करने का समय 60 दिवस होता है और अगर सजा का प्रावधान जिन अपराधों में 10 साल से अधिक होता है उनमें आरोप पत्र प्रस्तुत करने की समय अवधि 90 दिन होती है अगर इस अवधि में मुलजिम न्यायिक हिरासत में हैं और आरोपपत्र 60दिवस या 90 दिवस में प्रस्तुत नहीं किया गया है तो वह आरोपी अपनी जमानत के लिए हकदार होगा अर्थात 90 दिन या 60 दिवस के भीतर अगर चालान प्रस्तुत नहीं किया जाता है और मुलजिम न्यायिक हिरासत में है और अगर वह इस अवधि में अपनी जमानत का आवेदन पत्र प्रस्तुत कर देता है तो उसे जमानत दी जाएगी 90 दिन या 60 दिवस के भीतर चार्जशीट प्रस्तुत करने के बाद अगर वह प्रार्थना पत्र लगाता है तो इस प्रावधान से वह जमानत का हकदार नहीं होता है लेकिन ऐसा आरोप पत्र प्रस्तुत करने से पूर्व अगर वह प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर देता है तो उसे इस प्रावधान के तहत जमानत दी ही जाएगी.

अग्रिम जमानत– अगर किसी व्यक्ति को यह लगता है कि उसे किसी  अपराध के आरोप में गिरफ्तार  किया जा सकता है तो वह दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत सेशन न्यायालय या उच्च न्यायालय में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता है.

अंतरिम जमानत इस अंतरिम जमानत के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा में कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया है लेकिन कई बार सुनवाई के दौरान रेगुलर या अग्रिम जमानत नहीं देते हुए न्यायालय आदेश दे सकता है के किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण या सुनवाई के दौरान किन्हीं कारणों से अगली सुनवाई तक 10 दिन या 15 दिन जो भी हो मुलजिम की गिरफ्तारी पर रोक लगा सकता है ऐसी रोक को अंतरिम जमानत कहते हैं

जमानत और पैरोल —जमानत अनुसंधान या विचारण के दौरान दी जाती है जबकि पैरोल कारावास काट रहे अपराधी जो सजायाफ्ता अपराधी होते हैं उनको दी जाती है पेरोल कुछ समय के लिए विशेष परिस्थिति और कारणों के कारण दी जाती है जिनमें सुधारों की संभावनाओं को देखते हुए अच्छे आचरण के कारण जेल प्रशासन की अनुशंसा के आधार पर निर्भर होती है यह भी दो प्रकार की होती है पहली कस्टडी पैरोल और दूसरी रेगुलर पेरोल अर्थात जब जब आरोपी जेल में है लेकिन सजायाफ्ता नहीं है उसे कस्टडी पैरोल दी जा सकती है और जब मुलजिम सजायाफ्ता होता है अर्थात उसका निर्णय हो चुका होता है और वह सजा भुगत रहा होता है उस दौरान रेगुलर पैरोल दी जा सकती है पेरोल दिए जाने के भी कई आधार होते हैं जिनमें से गंभीर बीमारी परिवार में कुछ सदस्य मर गया हो शादी हो विवाह हो इत्यादि शामिल है जो जेल प्रशासन के विवेक पर निर्भर होता है

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