https://indianlawonline.com संविधान के महत्वपूर्ण निर्णय के अंतर्गत आज की शंखला में प्रस्तुत है :- गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य 1967 ——इस महत्वपूर्ण केस के बारे में विवेचन करने से पूर्व आपको बता दें कि पहले संविधान संशोधन के विरुद्ध दायर याचिका का केस शंकरी प्रसाद और फिर उसके बाद सज्जन सिंह का केस जिनका पूर्व में विवेचन किया गया है में यह निर्धारित हुआ था कि संसद को संविधान संशोधन करने की शक्ति है संसद मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है गोरखनाथ के प्रकरण में यह हुआ कि पंजाब सरकार ने एक अधिनियम पास किया पंजाब सिक्योरिटी एंड लैंड Tenures एक्ट —- जिसके तहत यह निर्धारित किया गया था कि 30 एकड़ से अधिक जमीन जिस किसी के पास में है तो वह सर प्लस मानी जाएगी सरकार इसे अधिग्रहण कर सकेगी ।गोलकनाथ व उसके भाई के पास कुल 500 एकड़ जमीन थी उक्त अधिनियम आने से 30 + 30 एकड़ अर्थात 60 एकड़ जमीन ही उनके पास बचती शेष 440 एकड़ जमीन सरकार अधिग्रहण कर लेती इस पर गोरखनाथ ने यह याचिका सविधान के अनुच्छेद 32के तहत देश के जाने माने वकील नानी पालकी वाला के जरिए प्रस्तुत की जिसमें यह तर्क दिये कि यह संविधान संशोधन गलत है संसद के पास ऐसी पावर नहीं हैओर राज्य सरकार के कानूनो के प्रावधानो को संविधान के 9वे शेड्यूल में डालकर उन्हें ऐसा बना देना की उनकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है एवं किसी कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता है ऐसे प्रावधान करना गलत है संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है मौलिक अधिकार संविधान का हृदय है इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता उनके वकील का यह भी तर्क था कि अनुच्छेद 368 मे “पावर “शब्द का उपयोग नहीं है उसमे प्रोसीजर बताया गया हे जब “पावर “नहीं है तो संसद संविधान मैं संशोधन नहीं कर सकती हैं संविधान के अनुच्छेद 32 व 226 में दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है आदि आदि अनेकों तर्क रखे गये.
आईसी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य
दोनों पक्षो की बहस सुनने के बाद 11 जजों की संविधान खंडपीठ ने 6- 5 बहुमत से निर्णय देते हुए बहुत महत्वपूर्ण तथ्य अपने निर्णय में बताएं न्यायालय ने पूर्व में दिए गए अपने निर्णयो शंकरी प्रसाद व सज्जन सिंह over rules करते हुए अपना निर्णय दिया इस निर्णय में संविधान के अनुच्छेद 368 ,19(1)(f), 19(1)(g), अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 32, अनुच्छेद 13, इन सभी पर विस्तृत बहस सुनने के बाद जो निर्णय दिया उसमें बैलेंस ऑफ पावर को ध्यान में रखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का संसद को अधिकार नहीं है कोई कानून अगर मौलिक अधिकारों को प्रभावित करता है तो उसे नहीं माना जाएगा न्यायालय के अनुसार जैसे नेचुरल अधिकार होते हैं वैसे ही मौलिक अधिकार है अगर संसद को कोई संविधान में संशोधन करना है तो पहले संसदीय असेंबली का गठन करना होगा इस प्रकार अपने पूर्व फैसलो को पलटते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का संसद का अधिकार समाप्त कर दियासाथ ही इस निर्णय से पूर्व के निर्णयों पर कोई असमंजस की स्थितिपैदा ना हो इसके लिए इस निर्णय को doctrine of prospective over ruleing के सिद्धांत के तहत लागू किया गया एवं पूर्व के निर्णयो व इस निर्णय को लेकर कोई भर्म ना हो इसलिए इस सिद्धांत को लागू किया गया जिसके अनुसार यह निर्णय भविष्य में होने वाले विषयो पर लागू होगा भूत कालीन निर्णयो पर यह निर्णय लागू नहीं होगा.इस निर्णय के बाद इस निर्णय के कारण भारत की राजनीति में मानो भूचाल सा आ गया तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने इस फैसले के विरुद्ध संविधान का 24 वा संशोधन संसद में पारित कर दिया जिसके तहत अनुच्छेद 13 वह अनुच्छेद 368 में संशोधन किए गए जिसके अनुसार संसद को संविधान के मौलिक अधिकारों में भी संशोधन का अधिकार होगा एवं संसद द्वारा किए गए संशोधन कोभारत के राष्ट्रपति मात्र औपचारिक अप्रूवल देंगे यह प्रावधान भी कर दिया गया पहले भारत के राष्ट्पति संसद के संसोधन को मना कर सकते थे या उसे अपने पास रोक सकते थे साथ ही अनुच्छेद 368 मार्जनन नोट में “पावर “शब्द कोभी जोड़ दिया गया. इस प्रकार सरकार नें गोलकनाथ के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को अपने 24 वें संशोधन से निरस्त कर दिया संविधान के ऐसे ही रोचक निर्णयों की अगली कड़ी में हम एक और बड़े व महत्वपूर्ण निर्णय केशवानन्द भारती केस पर विवेचन करेंगे.https://indianlawonline.com
इस निर्णय में माननीय सुप्रीम कोर्ट नें निम्न महत्वपूर्ण तथ्यों को भी बताया
हमारे संविधान ने जिन व्यक्तियों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हैं उन्हें न्यायालय जाने का गारंटीकृत अधिकार दिया है। यदि अधिकारों को छीना जा सकता है तो गारंटी बेकार है। यह हमारे संविधान को अद्वितीय बनाता है और अमेरिकी या अन्य विदेशी मिसालें ज्यादा मददगार नहीं हो सकती हैं। ऐसा नहीं है कि मौलिक अधिकार किसी परिवर्तन या संशोधन के अधीन नहीं हैं। संविधान उस कमी की सीमा बताते हुए अधिकांश मौलिक अधिकारों के प्रयोग में कटौती की अनुमति देता है। यह मौलिक अधिकारों को नियंत्रित करने की अनुमति देता है लेकिन उनके उन्मूलन पर रोक लगाता है प्रस्तावना कोई साधारण बात नहीं है, बल्कि इसे साकार करने का तरीका संविधान में विस्तार से बताया गया है। संविधान विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं, अर्थात् संघ, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अस्तित्व में लाता है। यह सत्ता के तीन प्रमुख उपकरणों का निर्माण करता है, अर्थात् विधानमंडल, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यह उनके अधिकार क्षेत्र का बारीकी से सीमांकन करता है और उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपनी सीमाओं को पार किए बिना अपनी संबंधित शक्तियों का प्रयोग करें। उन्हें आवंटित क्षेत्रों के भीतर कार्य करना चाहिए। कुछ शक्तियाँ ओवरलैप होती हैं और कुछ आपात स्थितियों के दौरान अधिग्रहित हो जाती हैं। संघर्षों के समाधान का तरीका और अधिक्रमण के लिए शर्तें भी निर्धारित हैं। संक्षेप में, शक्ति का दायरा और उसके प्रयोग का तरीका कानून द्वारा नियंत्रित होता है। संविधान के तहत सृजित कोई भी सत्ता सर्वोच्च नहीं होती; संविधान सर्वोच्च है; अब, मौलिक अधिकार क्या हैं? वे संविधान के भाग III में सन्निहित हैं और उन्हें इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है: (i) समानता का अधिकार, (ii) स्वतंत्रता का अधिकार, (iii) शोषण के खिलाफ अधिकार, (iv) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, (v) सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार, (vi) संपत्ति का अधिकार, और
(vii) संवैधानिक उपचारों का अधिकार। वे हमारे संविधान द्वारा संरक्षित लोगों के अधिकार हैं। “मौलिक अधिकार” पारंपरिक रूप से “प्राकृतिक अधिकार” के रूप में जाने जाने वाले आधुनिक नाम हैं। जैसा कि एक लेखक कहते हैं: “वे नैतिक अधिकार हैं जो हर जगह हर इंसान को हर समय सिमी होना चाहिए क्योंकि यह नैतिकता के विपरीत है।” वे मानव व्यक्तित्व के आदिम स्वभाव हैं। मनुष्य को अपने जीवन को निर्धारित करने के लिए तर्कसंगत और उन विकास अधिकारों के लिए प्रयास करना चाहिए जो उसे सबसे अच्छा पसंद करते हैं। हमारे संविधान में जाने-माने मौलिक अधिकारों के अलावा ऐसे अधिकारों में अल्पसंख्यकों, अछूतों और अन्य पिछड़े समुदायों के अधिकारों को भी शामिल किया गया है।
मौलिक अधिकारों की घोषणा करने के बाद, हमारा संविधान कहता है कि संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले भारत के क्षेत्र में लागू सभी कानून, जहां तक कि वे उक्त अधिकारों के साथ असंगत हैं, इस तरह की असंगति की सीमा तक शून्य हैं। संविधान राज्य को यह भी आदेश देता है कि वह ऐसा कोई कानून न बनाए जो उक्त अधिकारों को छीनता हो या कम करता हो और ऐसे कानूनों को इस तरह की असंगति की सीमा तक शून्य घोषित करता हो।
गोलकनाथ निर्णय की PDF फाइल डाउनलोड करे
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